जहांगीरी दरवाज़ा : इतिहास की चौखट पर खड़ी उपेक्षा की दास्तान

बयाना. हिण्डौन-बयाना स्टेट हाईवे पर कस्बे के बीचों-बीच वन विभाग के रेंज कार्यालय के ठीक सामने स्थित जहांगीरी दरवाज़ा, एक ऐसा ऐतिहासिक स्मारक है, जिसके पत्थरों में मुगल काल की खनक और समय की धूल दोनों एक-साथ कैद हैं। कभी यह दरवाज़ा बयाना की रणनीतिक और सांस्कृतिक महत्ता का प्रहरी था, पर आज यह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता एक मौन साक्षी बन चुका है।
जहांगीरी दरवाज़ा का निर्माण मुगल बादशाह जहांगीर के काल से जोड़ा जाता है। इतिहासकार मानते हैं कि यह गेट संभवतः उसी दौर में बना होगा जब जहांगीर ने अपनी आत्मकथा तुज़ुक-ए-जहांगीरी में बयाना यात्रा का ज़िक्र किया था। उस समय बयाना “सुल्तानकोट” नामक किलेबंदी वाले क्षेत्र का हिस्सा था, जो सुरक्षा, व्यापार और शासन का प्रमुख केंद्र माना जाता था। लाल बलुआ पत्थर से सजा यह भव्य दरवाज़ा अपनी मेहराबों, अष्टकोणीय स्तंभों, फूलों की नक्काशी, नीली-पीली टाइल वर्क और दो-मंज़िला जैसी दिखाई देने वाली संरचना के कारण राजपूत-मुगल स्थापत्य शैली की उत्कृष्टता को प्रकट करता है। यह वह समय था जब मुगल वास्तुकला अपने चरम पर थी और बयाना भी इसी वैभव का साक्षी था।4
लेकिन आज तस्वीर कुछ और ही कहानी कहती है। यह ऐतिहासिक स्मारक अपनी दुर्दशा के आँसुओं को भीतर ही भीतर पी रहा है। दरवाज़ा टूटी चिनाई, उखड़ती परतों और बिखरती ईंटों के बीच दम तोड़ता दिखाई देता है। जिस स्मारक के लिए चारों ओर एक सुरक्षित और सम्मानजनक परिधि बननी चाहिए थी, उसके ठीक सामने जप्त कबाड़ वाहन, जर्जर ट्रक और टूटी-फूटी गाड़ियाँ खड़ी कर दी गई हैं। यह न केवल उसके सौंदर्य को क्षति पहुँचा रहा है, बल्कि संरचना पर भौतिक खतरा भी बढ़ा रहा है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की कार्यशैली पर भी गंभीर सवाल खड़े होते हैं। जहांगीरी दरवाज़ा एएसआई की संरक्षित स्मारक सूची में शामिल होने के बावजूद इसकी वर्तमान स्थिति ही बता देती है कि काग़ज़ों में संरक्षण और ज़मीन पर हकीकत, दोनों अलग-अलग दुनिया हैं। न मरम्मत का प्रयास, न टाइल वर्क के पुनर्स्थापन की कोई योजना, न आसपास की साफ-सफाई पर ध्यान। अतिक्रमण और वाहनों का जमावड़ा आम हो चुका है। यहां तक कि सूचना पट्ट और सुरक्षा दीवार भी उपेक्षित अवस्था में पड़ी हैं। संबंधित विभागों के बीच समन्वय का अभाव इस उपेक्षा को और भी स्पष्ट करता है।
स्थानीय प्रशासन की भूमिका भी संदेह के घेरे से बाहर नहीं है। यह समझना मुश्किल है कि पहले जगह की कमी हुई या इतिहास के प्रति संवेदनशीलता समाप्त होने लगी ? वन विभाग और प्रशासन की नज़रें यदि इस स्मारक पर जातीं, तो कोई भी जिम्मेदार संस्था एक ऐतिहासिक धरोहर के ठीक सामने कबाड़ और जप्त गाड़ियों का ढेर लगाने की अनुमति नहीं देती।
यदि यही हाल रहा, तो जल्द ही जहांगीरी दरवाज़ा इतिहास की किताबों में सिर्फ एक तस्वीर बनकर रह जाएगा। वह दरवाज़ा, जहां से कभी सामंतों के घोड़े गुजरे होंगे, जहां की छाया में इतिहास के दस्तावेज़ों में दर्ज यात्राएं हुई होंगी, आज उसी विरासत पर मलबा, धूल और उपेक्षा का बोझ लदा है।
इससे पहले कि देर हो जाए, आवश्यक है कि एएसआई तत्काल सर्वे कर संरक्षण योजना तैयार करे, स्थानीय प्रशासन जप्त वाहनों और कबाड़ को हटवाकर स्मारक क्षेत्र को साफ-सुथरा बनाए, सुरक्षा परिधि विकसित की जाए और इस धरोहर को पर्यटन मानचित्र पर सम्मानजनक स्थान दिया जाए। इतिहास केवल किताबों में नहीं बसता, वह हमारी ज़मीन, हमारी पहचान और हमारी जिम्मेदारी का जीवंत हिस्सा है। जहांगीरी दरवाज़ा आज भी खड़ा है, पर सवाल यह है कि हम कब जागेंगे ?

एएसआई अधिकारी बोले -जहांगीरी गेट सहित तमाम स्मारकों के संरक्षण एवं असल स्वरूप में बहाली के प्रस्ताव उच्चाधिकारियों को भेजे हुये हैं। स्वीकृति मिलने के बाद काम शुरू कराकर स्मारकों को पुराने स्वरूप में स्थापित कराया जायेगा।……..सौरभ मीना, संरक्षण सहायक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, उप मण्डल कार्यालय, भरतपुर

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